Thursday, 4 September 2008
हे माक्र्स के अनुयायी!
यह
कुटिलधारा है या मिट्टी का लोंधा,
चुप क्यों हो?
क्या काठ मार गया, तुम्हें कामरेड!
‘स्वार्थ की गंगोत्री है बह रही यहां
और तुम
भीष्म पितामह की तरह
हस्तिनापुर से बंधे हो, कामॅरेड!
क्या तब अपनी वेदवाणी शुरू करोगे,
जब कुरूक्षेत्र में सब साथी,
बंधु-बांधव
खेत रह जायेंगे
और
तब युधिष्ठिर की तरह
हमें ज्ञान दोगे
हे कामरेड!
क्या हमारी नियति सिर्फ
युधिष्ठिर की है?
कर्मयोग क्या नहीं है हमारे लिए
क्या निगेशन फाॅर निगेशन का सूत्रवाक्य,
उस तोते की तरह रटा है तुमने,
हे कामरेड!
मैं नहीं कहता कि
प्रसाद को प्रणाम कर खाना
माक्र्सवाद विरोधी है।
मैंने र्बबरिक की तरह
पूरा महाभारत देखा हैः
तेरे अंदर चलने वाला।
अपनी चेतना को गिरवी नहीं रख सकता हूं
कुछ सवाल छोड़े थे तुमने
माक्र्सवाद विरोध का
बहु-बेटियां पटना-दिल्ली में
और अपने गांव में लूट रही है।
रोज एक गांव की कब्र पर खड़ा हो रहा है
किसी शहर का एक मुहल्ला।
कामरेड! मौन क्यों हो?
मानव हड्डियांे की भरमार से,
भरम होता है
हिंदुस्तान नहीं कब्रिस्तान का।
जहां दफन है,
हमारी संस्कृति, नैतिकता, मर्यादाओं के शव।
और तुम कामॅरेड!
जमाना है पेप्सी कोला का
नेट क्रंाति का
और तुम सुना रहे हो
मुझे दास कैपिटल।
क्या यही है वैज्ञानिक समाजवाद
तो क्या अंतर है
वेद और दास कैपिटल में।
तुम कामरेड
तो एक वटवृक्ष हो,
जो अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहता है।
मगर
वैज्ञानिक माक्र्सवाद
खत्म नहीं हुआ
वह जिंदा है
अपने चाहने वालों के बीच
खेतों में-कारखानों में
विद्रोह
नियति है
पूंजीवादी समाज की
वर्ग के जिंदा रहते
तेरे चाहने से कुछ नहीं होने वाला है
हे छद्मभेषी कामरेड!े
विपत्ति बंगाल
होट्ात
गुरूकुल के प्रति
एक वर्ग के प्रति
लाल के नाम से
नक्सबाडी के नाम से
वि’व मे जानते थे लोग
लाल राज्य
स्थिरि सरकार मजदूर किसानों के हितैषी
श्रम को सम्मान
पहचान बन गयी थी
खून से सीच कर
बनाया लाल राज्य अलग राज्य
कई सदी से चलती रही
बंगाल की सरकार
कर्मठ निर्णयकवान
टूट गयी पूंजी के आगे
झूक गयी जनता के आगे
Sunday, 31 August 2008
राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मानव अधिकार करने के लिए जल
Wednesday, 27 August 2008
सरकारी नीति
अलोका
देहरी पर खड़ी भूख
सरकारी योजनाओं के साथ
उगते है सवाल..........
अधिकार का इमान का
नैतिकता व पहचान का
नानी की कहानी का
समीकरण है, यह खेल का
या विज्ञान के रेल का
दर असल.....
नीतियां योजनाओं होती है,
गुलाब की तरह
रंग होती है, सुगंध होती है
पर होेते है चारों तरफ कांटे
जिनका होता है मुरझाना तय
पड़ जाता है विराम
फिर
आम- आवाम
गांव- गिरांव
जैसा था कल
रह जाता है आज
यही है
सरकारी नीति व योजना का राजनये जमाने के साथ
मजदूर किसान आम जनता
बन जाते है सवाल
जमीन का टुकड़ा
खमोशी
खण्ड़ 1
मैं मोन हूं।
किसी से कभी कुछ नही कहती
कहती भी कैसे?
मै इस लिए भी मौन हूंं
सोचती हूं।
इस धरती का पूरा हिस्सा मेरा है
सभी मेरे ही तो है।
जब बट जाती शब्दो से
कोर्ट के कागजो के उपर
समझती हूं मै
एक है हम सभी
आरी तिरक्षी किनारा
दिवार है बन जाता
हवा के बहाव में दोनो का आंचल लहरा रहा
मै मौन हॅू।
कानून के बटवारे के विरूद्व
बटती जाती
अपने को रौदने वाले के लिए
टुटती हॅू।
जूटती हूं।
उन मौैन धारी अन्य जीवों के लिए
हर वक्त साथ रहता है मेरा
मौन धारण कर पकड़ा रहता
मुझसे जुदा होने की नही वो
कर पाते कल्पना
साया में ठहराव हुआ वर्षो बीस से
टुकडों की बात वो नही कर समता
जिश्म से उत्पन्न
रूकना, ठहरना, सहयोग
और नही कर पाती जमीन के टुकड़े के बीच
रंखा गणित नही समझती
सिर्फ समझती हूं
जयशंकर की उन कविताओं का सार
समझौता और समझौता
हर वक्त होता
हर के साथ
मानव जीवन टिका टुकडे के साथ
जमीन के टुकडे पर बनता नया संसार
जंग में तबाही टुकडे के लिए
जमीन का टुकडा किसके लिए
मैं मौन हूं इसलिए।
मैने नि’चय किया
अलोका
हर रोज तुम्हारे यादों में कुछ किया करू
यादो में सब के सब समाया करू
विफल हो जाउ कोई बात नहीं
सभंल जाउ ऐ बात नही
करना था कि उसे कुछ कर के दिखाउ
वे वजह के तारिफ बाधं आये
करना था कुछ उसके लिए
जिसके दम पर हर रोज कहती थी एक कथा
कम पड़ गया था उस वक्त
खाली हो गयी थी
सभा
हार कैसे मान जाती
कि तुम भी कभी याद आते
हर पंक्ति मेें प्रेम गान गाते
उस वक्त का इन्तजार होता
जिस दिन यादो में बहार आते।
उस दिन गलिया भी गुनगुना रही होती थी
जान पावोगे तु इस वादी का हर शमा
याद के परिंदा बाध रहा
लाल सलाम काॅमरेड़
स्ंार्धष का एक नाम था महेन्द्र सिंह
तूफानों की तरह उठंती थी
विधानसभा में उनकी आवाज
एक मकसद का तोहफा
जनता के लिए हुआ करता था।
हर इंंसान स्त्रीं बच्चे को इंताजर हो गया
एक राज्य स्वतंत्रत रूप से जनता ने बनाया
अपने मकसद को पाते हुए
देखे गरीब गुरबा दुःखी
तमन्ना मन में उजाले के साथ
रौ’ान कर जाने को था।
ेेविकास के मोडॅल पर प्र’न करने
कोई ना बचा
मैने देखी एक आजादी।
Aलोक
झाड़खण्ड राज बन गया।
मन खिल गया।
कैसा होगा।
कल का सूरज
पूरब के आकाश में
झाड़खण्ड के घर-घर
कोना कोना।
दिख रहा आज सूरज।
झाड़खण्ड के आकाश में
गांव घर अंधकार
न बिजली बत्ती।
मिट्टी के तेल का आकाल
स्कुल में मास्टर का अभाव
अस्पताल से डाक्टर लापता
कौन लेगा यह भार
विचार सब जानते है।
लगाना है लगाम
जो नही लगा
वही नेता कर रहा है राज
झाड़खण्ड को बेच
भुला दिया बिरसा क उलगुलान
उठो जागो झाड़खण्डी
विचारों का राह पकडों
जात- पात छोडो
बिरसा की राह पकड़ो
एक नया विचार
पैदा तुम करों
ताज महल की दुनिया।
शाहजहां
अपने प्यार वाली इमारत में
भारत की अर्थतंत्र सिमटेगा।
व्यापार पेट से जुडा होगा।
न सोचा होगा।
कि पत्नी की वियोग का स्थान
देश का भुख मिटाएगा।
लाखो लोगो का रोजगार
पूरे देश की अर्थ व्यवस्था
अब टिका है
शांहजहां के प्यार में
वो दुर से चल कर
प्यार को निहार लेता
साथ ही भारत के भूख को
सहारा वो दे देता।
अब झुकने लगे है प्यार
कि इमारत
थक चुका है
बड़ी आबादी का पेट
भरते भरते।