Sunday, 31 August 2008

राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मानव अधिकार करने के लिए जल

जल पर है पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति पानी के बिना नहीं रह सकते हैं जीव के अंतर्गत पानी भी आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक है यदि केवल यह बात सभी को पता है मानव अस्तित्व के लिए जल आवश्यक रही है राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए मानव बुनियादी जरूरतों के साथ संबंध के मुद्दे पर विशेष रूप से पानी की उपलब्धता और वितरण किस चिंताओं की संतुष्टि के बुनियादी है अपेक्षाकृत सस्ता और आसान पहुँच को पानी उपलब्ध, ऐसा क्यों है तो इसके वितरण में असमानता है कई विकासशील देशों में जहां पानी की पहुँच है असमानता की गारंटी हो भेदभावपूर्ण के माध्यम से मूल्य निर्धारण उदाहरण के लिए वास्तव में अक्सर गरीब परिवारों के लिए पानी की तुलना में अधिक भुगतान समृद्ध हैं 2006 के अनुसार मानव विकास रिपोर्ट में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले परिवारों का भुगतान पाँच से दस गुना अधिक पानी के लिए धन की तुलना में विकासशील देशों में शहरों के घरों ; यूएनडीपी ए 2006रू10 यह असमानता का प्रतिनिधित्व करता है एक गंभीर उल्लंघन के एक मानव अधिकार के रूप में विकसित किया जाएगा और इसे आगे है सहन नहीं किया जाना चाहिए इस पत्र के मुद्दे को संबोधित करने की इच्छा चिंताओं द्वारा निभाई गई भूमिका में अर्थशास्त्र असमान की हर दावा लोगों के पानी को साफ करने के मानव अधिकार है मुख्यधारा के अर्थशास्त्ए स्कूल के किसी अन्य रूप में सोचा है इसके द्वारा विशेष पद्धति है इसका विशेष तार्किकता और उसके विशेष विश्लेषणात्मक अस्त्र है मुख्यधारा के अर्थशास्त्र है व्यक्तिपरक उपयोगिता और संतुलन संचालित है अंततः गणितीय नियमनिष्ठ के साथ अधिक चिंतित हैं व्यक्तिपरक मुख्यधारा के अर्थशास्त्र को परिभाषित होने के नाते अपने लक्ष्यों का पीछा करने के मामले में अलग व्यक्ति के व्यक्तिगत रुचि ए सामाजिक कल्याण उदाहरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति की जा रही

Wednesday, 27 August 2008

सरकारी नीति


अलोका


देहरी पर खड़ी भूख
सरकारी योजनाओं के साथ
उगते है सवाल..........
अधिकार का इमान का
नैतिकता व पहचान का
नानी की कहानी का
समीकरण है, यह खेल का
या विज्ञान के रेल का
दर असल.....
नीतियां योजनाओं होती है,
गुलाब की तरह
रंग होती है, सुगंध होती है
पर होेते है चारों तरफ कांटे
जिनका होता है मुरझाना तय
पड़ जाता है विराम
फिर
आम- आवाम
गांव- गिरांव
जैसा था कल
रह जाता है आज
यही है
सरकारी नीति व योजना का राजनये जमाने के साथ
मजदूर किसान आम जनता
बन जाते है सवाल

जमीन का टुकड़ा

अलोका


खमोशी
खण्ड़ 1
मैं मोन हूं।
किसी से कभी कुछ नही कहती
कहती भी कैसे?
मै इस लिए भी मौन हूंं
सोचती हूं।
इस धरती का पूरा हिस्सा मेरा है
सभी मेरे ही तो है।
जब बट जाती शब्दो से
कोर्ट के कागजो के उपर
समझती हूं मै
एक है हम सभी
आरी तिरक्षी किनारा
दिवार है बन जाता
हवा के बहाव में दोनो का आंचल लहरा रहा
मै मौन हॅू।
कानून के बटवारे के विरूद्व
बटती जाती
अपने को रौदने वाले के लिए
टुटती हॅू।
जूटती हूं।
उन मौैन धारी अन्य जीवों के लिए
हर वक्त साथ रहता है मेरा
मौन धारण कर पकड़ा रहता
मुझसे जुदा होने की नही वो
कर पाते कल्पना
साया में ठहराव हुआ वर्षो बीस से
टुकडों की बात वो नही कर समता
जिश्म से उत्पन्न
रूकना, ठहरना, सहयोग
और नही कर पाती जमीन के टुकड़े के बीच
रंखा गणित नही समझती
सिर्फ समझती हूं
जयशंकर की उन कविताओं का सार
समझौता और समझौता
हर वक्त होता
हर के साथ
मानव जीवन टिका टुकडे के साथ
जमीन के टुकडे पर बनता नया संसार
जंग में तबाही टुकडे के लिए
जमीन का टुकडा किसके लिए
मैं मौन हूं इसलिए।

मैने नि’चय किया


अलोका


हर रोज तुम्हारे यादों में कुछ किया करू
यादो में सब के सब समाया करू
विफल हो जाउ कोई बात नहीं
सभंल जाउ ऐ बात नही
करना था कि उसे कुछ कर के दिखाउ
वे वजह के तारिफ बाधं आये
करना था कुछ उसके लिए
जिसके दम पर हर रोज कहती थी एक कथा
कम पड़ गया था उस वक्त
खाली हो गयी थी
सभा
हार कैसे मान जाती
कि तुम भी कभी याद आते
हर पंक्ति मेें प्रेम गान गाते
उस वक्त का इन्तजार होता
जिस दिन यादो में बहार आते।
उस दिन गलिया भी गुनगुना रही होती थी
जान पावोगे तु इस वादी का हर शमा
याद के परिंदा बाध रहा

लाल सलाम काॅमरेड़

Aलोक

स्ंार्धष का एक नाम था महेन्द्र सिंह
तूफानों की तरह उठंती थी
विधानसभा में उनकी आवाज
एक मकसद का तोहफा
जनता के लिए हुआ करता था।
हर इंंसान स्त्रीं बच्चे को इंताजर हो गया
एक राज्य स्वतंत्रत रूप से जनता ने बनाया
अपने मकसद को पाते हुए
देखे गरीब गुरबा दुःखी
तमन्ना मन में उजाले के साथ
रौ’ान कर जाने को था।
ेेविकास के मोडॅल पर प्र’न करने
कोई ना बचा

मैने देखी एक आजादी।

Aलोक

झाड़खण्ड राज बन गया।
मन खिल गया।
कैसा होगा।
कल का सूरज
पूरब के आकाश में
झाड़खण्ड के घर-घर
कोना कोना।
दिख रहा आज सूरज।
झाड़खण्ड के आकाश में
गांव घर अंधकार
न बिजली बत्ती।
मिट्टी के तेल का आकाल
स्कुल में मास्टर का अभाव
अस्पताल से डाक्टर लापता
कौन लेगा यह भार
विचार सब जानते है।
लगाना है लगाम
जो नही लगा
वही नेता कर रहा है राज
झाड़खण्ड को बेच
भुला दिया बिरसा क उलगुलान
उठो जागो झाड़खण्डी
विचारों का राह पकडों
जात- पात छोडो
बिरसा की राह पकड़ो
एक नया विचार
पैदा तुम करों

ताज महल की दुनिया।

aloka
न सोचा होगा।
शाहजहां
अपने प्यार वाली इमारत में
भारत की अर्थतंत्र सिमटेगा।
व्यापार पेट से जुडा होगा।
न सोचा होगा।
कि पत्नी की वियोग का स्थान
देश का भुख मिटाएगा।
लाखो लोगो का रोजगार
पूरे देश की अर्थ व्यवस्था
अब टिका है
शांहजहां के प्यार में
वो दुर से चल कर
प्यार को निहार लेता
साथ ही भारत के भूख को
सहारा वो दे देता।
अब झुकने लगे है प्यार
कि इमारत
थक चुका है
बड़ी आबादी का पेट
भरते भरते।

Tuesday, 26 August 2008

दामिन-इ-कोह

Aloka

अपना समाज
दामिन-इ-कोह की।
जीवन एक सुत्र में बंधा था ।
भूल जाऐगे- जंगत के र्दद
बन कर रहेगें राजा-रानी
जंगल के साथ।
कंठ से निकलते मधुर गीत।
स्वपन सुखी समृद्ध समाज का
दिनचर्या होती शुरू।
मुर्गी की बांग से।
जंगल में पैर ना रखा हो इंसान
हुआ था तैयार घने जंगल में
घास- पूस,दीवारो का छोटा सा
गाव संथाल का।
रंग -बिरगी जंगली जानकरों
फूलो तितली के चित्र।
मेहनत खुले आसमान के नीचे
कंद मूल इकट्ठ कर।
शाम को घर को लौटते।
जो मिला खाकर भूख शांत करते।
शुरू होता समूह में गाना, बजाना।
फिर आराम।
कहां गया?
दामिन-इ-कोह के अपना राज।

वारिश के बुंद।


Aloka


हर बुंद में है संवाद।
वह कुछ कह रहा।
उसके शब्दा को समझों
वारिश की बुंद।
कुछ अवश्य कह रही
तु प्यास से सुन।
वो बंदे कुछ कह रहा
शायद अहिमयत बता रहा
हर बुंद
एक स्थान मे मिलने की
बात वह कह रहा
शायद वह उपयोग
वारिश के बुंद ।
मेरे कानो को कह रहा।
मुझे एक जगहा
कई कामों मेंं
उपयोग कर
वारिश के बुंद
जब कटोर धरती में
ये बूदं टकरा कर टुट जाते है।

Monday, 25 August 2008

मुलाकात के बाद।

अलोका और फरहद


एक लम्बे इन्तजार के बाद
मिले है हम दोनो
दर्द भरे नगमो के साथ
इसमें ढ़ढते है दो पल खुशियां
खिल उठाता है चमन अपना
एक लम्बे इन्तजार के बाद
सिसकते अरमान को बाटते हम
टुटे फुटे शब्दो के साथ
सुनहरे ख्वाब सजाते है हम
टुटे हुए सितारों के साथ
ये पल अभी अपना है
कल का पल अपना हो ना हो
इस लम्हा को कैद कर लेते
हम दोनो
अपने डायरी और कलमो के साथ

ज्जबात की कहानी।

अलोका और फहरद
दो यारों की जुबानी।
फकत कहते है।
दर्द ए हेयात की कहानी
डुबी हुई कस्तियां
ढ़ढती है अपनी ही कहानी।
गम इस दिल में लगाया।
अपने ही दर्द को सहलाया ।
अपने डुबे कस्ती को उठाया।
संसार डिगा न सका।
दोनो यारो की वफा कि निशानी
इस दिल में हैं इतनी जगहा।
जिसमें समा सकता है दो।
यारो कि वफा
जिसमे होगी ।
ज्जबात की कहानी।
दो यारो की जुबानी।

तीसरी दुनिेया की तीसरी दुकान।

अलोका

इस दुकान में क्या- क्या न बिकता।
मानव को इंडिजिनश पियूपल बना देता।
हिन्दी को अग्रेजी बना डाला।
संधर्ष की दुकान चलाया ।
मनुष्य को रंग के अनुरूप।
मैटर बना कर बेच आया।
किमत किससे ज्यादा मिलेगी।
उस भाषण को किताब बनाया।
बैनर पर संस्कृति परम्परा का
प्रोडक्ट लोंच होने का सकेत दे आया।
मानव को फेक्ट्री की तरह
वो इस्तेमाल कर आया।
ग्रामीण बोली हीरा बना।
पहले दुकान आंदोलन का चला।
धीरे- धीरे बच्चे भी उसमें शमिल होते गये।
शिक्षा का महत्व रूप के अनुरूप बना।
पलायन तो कोडी के भाव बिका।
डायन हत्या का मूल्य निधारित नही
अब कचडा साफ कराने में दो करोड़ कमा चुके
स्वास्थ्य विषय बड़ा पुराना है।
इसका बाजार निराला है।
एक नया प्रोडक्ट और लांच हुआ।
मुद्दा बना जंगल का।
देश के कोने -कोने में खोला बड़ा बाजार।
लाखो लोग ने जमकर कमाया।
अब तक न एक पेड़ बचाया।
नारा बना जंगल कटने से
वारिश पर हुआ असर
और खुला एक नया दुकान।
पानी-पानी-पानी का
एक को राहत अब तक न मिली
पानी के बिन जनता लड़ पड़ी।
मुद्दा बना चुनाव का ।
कौन प्रोडक्ट अच्छा है।
किसमें किमत ज्यादा है।
जिसका संबध फाॅरन से है।
लांच कराने वाले सब जानते है।
बड़ी दुकान बड़ा दाम।
छोटी दुकान छोटा दाम।
मेहनत मजदूर कहता एक समान।
फिर भी करता जनता का सम्मान।
तीसरी दुनिया का तीसरी दुकान।
उस दुकान को मेरा सलाम।

चेयरमैन माओ

अलोका
प्रिय माओ,
जोहार!
एक समय था,
जब सड़कों की दीवारों पर पैबस्त रहता था
चीन का चैयरमैन हमारा चेयरमैन
हसंते थे कुछ लोग
कुछ देते थे गाली भी
मैं नहीं जानता, माओ !
वो ठीक थे या ये
मगर आज कुछ ठीक नहीं है तेरे बगैर
चीन में सब बदल गया,
मगर नहीं बदला, तो मजदूरों की बदली हुई किस्मत
आज झारखंड में तुम्हारे और गांधी के गाने वाले
हर दिन सड़कों पर मिल जायेंगे
मगर उनमें
तुम तो कहीं भी नहीं दिखते
झाड़खण्ड से बिरसा को भी दे’ा निकाला दे दिया है
मगर बिरसा के गीत हर बार बज जाते हैं
बिरसा और तुम्हारे लोग
बहला दिये गये हैं
वो जानते हैं चेग्वेरा व तुम्हारे टी’ार्ट पहने वाले
फ्रेंच कट दाढ़ी वाले
सिगरेट हाथों में लिये
रोज तुम्हें बेच आते हैं वल्र्ड बैंक के हाथों
फिर भी खोज रहे हैं तुम्हें
लोग
तेरी रचनाओं से दूर
उनकी सपनों की दुनिया में
एक चेहरा है
जो तुम्हारी तरह ही लगता है
और
अंधेरे में झलक उठता है हर चेहरा
जिस पर लिखा होता है
हां! चुप रहो,
कुछ नहीं होगा तुमसे
झोला उठा लो अपना
चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन

प्राकृति

अलोका

प्राकृति से लगाव।
इसका अर्थ दुसरा है।
मैं प्राकृति के धुन
और गीत सुनती हूं।
झरने चलते जाते हैं।
छोडते जाते है शब्द ।
तान होती उसमें
गुजरते है जहां से
वातावरण जाता है। बदल-बदल सा
हर मोड पर
सभी के लिए।
धुन और तान एक समान है।
हवा भी साथ मेंतान मिलाती है
मानों पत्थर पर टकरा कर नये
सुर ताल बिखेर रहे हो।
लगता है मांदल पर
किसी ने कम्पन्न
पैदा कर दी हो।
पक्षी भी अपने
स्वर रोक नही पाते।
हर कोई की अपनी वाणी।
पिरोये होते सुर में ।
वृक्ष भी इस तान से
दुर नही रह पाता ।
मानों समूह के साथ
अपना स्वर मिला रहा
झिंगूर(कीडे+) भी धरती के
अन्दर स्वर मिलाते है।
जब पूरी वादी एक साथ
झुमर गीत का तान छेड चुका हो
हर कोई अपनी उपस्थिति दर्ज
वहां करा जाते है
यह भी एक युद्ध जैसा ही है।
वे अपने गीतों के माघ्यम से
एकता का ऐलान कर रहा।

खजूर की चटाई।

अलोका

नानी के गांव में
खजूर क पत्ते
और उसकी चटाई
आज जीवित है
सदियों के बाद सर्दियों में
ओढ़ने बिछाने के लिए
मेहमानों के स्वगत के लिए
सम्मान पूर्व बैठने के लिए
आंधी तूफान में खोजते खजूर की चट्टाई
बरसात की झड़ी में
ढ़कने के लिए है मात्र
खजूर की चटाई।
चटाई हर किसी के पास
खलिहान में बैठने की इच्छा
चटाई मिट्टी के उपर डाल
इतमिनान से बुढ़ी औरतें
जीवन को गाते- सुनाते
खजूर के पेड के पत्ते से अनुभव
शहर वापस आते वक्त
चटाई की सुगन्ध
महसूस करते है हम
खजूर की चट्टाई
दिसंबर की रात
जाड़े के साथ
नानी पास होती
खजूर की चटाई
ढ़क कर हमें सुलाती
कंप कपी के ठंड़
बढ़ता था रातों कों
चूल्हे पर लकड़ी
जला कर ठंड सेलडाई,
साथ में खजूर की चट्टाई
आंधी रात को
गांव के सब लोगों ने
खजूर की पत्ती के साथ
जीवन जीना सीख लिया था।
जब मै बड़ी हो गयी
याद करते है।
अपने नानी घर कि कथा
महसूस करते
उस गांव के मुगी- मुर्गी।
पक्षी और घास के दिन
बेल आम कि महक याद आती है।
याद आती है खजूर की चटाई

मूढ़ी का पाइला।

अलोका

लगती है अच्छी
मूढ़ी वाली
चार पाइला मूढ़ी के बाद
भरी पोलोथिन मूढ़ी में
उपर से डाल देती है
एक मूट्ठी मूढ़ी
हालाकि यह चगनी मंगनी है
कि चार पाइला
मूढ़ी में थोड़ा हिल जाने पर
कुछ मूढि.यां गिर जाती है
ऐसा नही है
पाइला का माप कम हो जाता
फिर भी वो डाल देती है
उस पोलोथिन में मुट्ठी भर मूढ़ी
जैसे विवाह के बाद
बेटी की विदाई के वक्त
मां मुट्ठी भी चावल, हल्दी और दूब
खेाइछा देती है बांध
यह थोडा सा नहीे होता हैं
इसमे
प्यार आत्मीयता
गर्माहट और
‘’ाुभकामनाओं का
अनन्त संसार होता है
मुट्ठी भर प्यार
मुट्ठी भर गर्माहट
बस अब
मुट्ठी भर
अच्छे लोग।

नये हस्ताक्षर।

अलोका

युग का परिवर्तन हुआ
कार्य में सृजन हुआ
एक लम्हा उसके लिए
सिर्फ नये हस्ताक्षर में
विकट परिस्थिति
सहयोगात्मक भाव
निराला इस दुनिया में
घर के रसोई से
कलम भी बोलने लगे
स्त्री चरित्र पर
नये हस्ताक्षर होने लगे
इस युग का गाथा
बेड रूम के मेज
पर सजने लगे
अपने सृजन को
शब्दों को बदला
नये युग में
विचारों को जोड़ा
स्त्री की व्यथ
स्त्री ने ही लिख डाला।
जीवन की कसौटी में
खड़े.किए
नये हस्ताक्षर

कमसीन बनी श्रमशील।

अलोका
नया राज्य
पर
जीवन रूका -रूका सा
दिमाग खाली पड़ी
कमसीन बनी श्रमशील
नगे पंाव
चुडा के पोटली
मट मैले कपडे+।
मन में आकंाक्षा।
सब पर भारी भूख
चली ट्रेन से
सूखे आंेठो को
आंसू से भींगाते
कल की चिन्ता
महानगर की गली
काम की तलाश
भटकन और भटकन
अन्ततः वही जूठन
की सफाई
खेतों- वनों की कुमारी रानी, बेटी, माई
कमसीन
बनी रेजा- कुली- मेहरी
दाई बस
श्रम बेचने वाली श्रम’ाील

सन्नाटा अलोका


1सन्नाटा पसरा उस रात ।
थम गयी हो खमोशी
जैसे नरेंद्र मोदी का गुजरात।
दिसंबर की रात,
था घुप अंधेरा
च्ेाहरे पर था कई चेहरा
2लम्बे समय तक सिर्फ
खौफ, खमोशी और सन्नाटा
काली रात भी विलखती रही
सड़कों पर न जाने क्या-क्या सुलगती रही
हां, था
वो हमारा गुजरात
सन्नाटे में जलती रही रात3चीख औरतों की
बच्चे गुम हुए औरतों की
सूरज भी बिलखता रहा
और
मां की लाश पे’ सिसक कर
सो गया माहताब
हां वही था
हमारा गुजरात

दिल्ली में हैं झाड़खण्ड। अलोका

श्रमशील
दिल्ली में
ठोकर खा रहे
फुटपाथ पर
झाड़खण्ड का भविष्य
घर छोड.ने पर किया मजबूर ।
गिरतेेे- पड़तेे जी रहे है।
अपनो से दूर
गुम हो रहे है सपने ।
दिल्ली के गलियों में
अपनी ही लोगो से
लूट रही परम्परा; संस्कृति
बस बाजार में।
खो जाती है बड़े नगरो में
बेचती है अपना श्रम
पुछते है आस-पास के लोग
कहते है ......................
दिल्ली में है झाड़खण्ड।

अब बनेंगे बांध आंसू के।

अलोका
कोई कोना देश काबांध बांधने से बचा नही।
नदी का किनाराबांध से अछुता नही।

नाली के पानी तक कोबांधने की योजना चल पड़ी।

सागर के पानी

देशो में बटवारा हो चुकी।

कई नदियां अब बिक चुकीधरती का पानी बचा नहीं

लगते लगाम

आंसू पर अब बंधेगे बांध आंसू के

एक काॅमरेड का bhshan

अलोका
आज
भाषणआज की व्यवस्था पर अर्ज
तमतमाया हुए चेहरे
सेट पकने लगे है
शब्द और ध्वनि
मुट्ठी बन्द
तने हुए हाथ
तलवार से कम नहीं वाणी की धार
खुलने का नाम नहीं लेती मुट्ठी
खत्म होने का नाम नही लेते
खौलते शब्द विचार
विचारों के पसीने से परीजता
सफेद कुरते का काॅलर
बढ़ी रही शरीर की थरथराहट
चेहरे की तमतमाहट‘ शब्दों की धार
अब साम्राज्यवाद पर हमला तय है।