Wednesday, 27 August 2008

जमीन का टुकड़ा

अलोका


खमोशी
खण्ड़ 1
मैं मोन हूं।
किसी से कभी कुछ नही कहती
कहती भी कैसे?
मै इस लिए भी मौन हूंं
सोचती हूं।
इस धरती का पूरा हिस्सा मेरा है
सभी मेरे ही तो है।
जब बट जाती शब्दो से
कोर्ट के कागजो के उपर
समझती हूं मै
एक है हम सभी
आरी तिरक्षी किनारा
दिवार है बन जाता
हवा के बहाव में दोनो का आंचल लहरा रहा
मै मौन हॅू।
कानून के बटवारे के विरूद्व
बटती जाती
अपने को रौदने वाले के लिए
टुटती हॅू।
जूटती हूं।
उन मौैन धारी अन्य जीवों के लिए
हर वक्त साथ रहता है मेरा
मौन धारण कर पकड़ा रहता
मुझसे जुदा होने की नही वो
कर पाते कल्पना
साया में ठहराव हुआ वर्षो बीस से
टुकडों की बात वो नही कर समता
जिश्म से उत्पन्न
रूकना, ठहरना, सहयोग
और नही कर पाती जमीन के टुकड़े के बीच
रंखा गणित नही समझती
सिर्फ समझती हूं
जयशंकर की उन कविताओं का सार
समझौता और समझौता
हर वक्त होता
हर के साथ
मानव जीवन टिका टुकडे के साथ
जमीन के टुकडे पर बनता नया संसार
जंग में तबाही टुकडे के लिए
जमीन का टुकडा किसके लिए
मैं मौन हूं इसलिए।

No comments: