Thursday, 4 September 2008
हे माक्र्स के अनुयायी!
यह
कुटिलधारा है या मिट्टी का लोंधा,
चुप क्यों हो?
क्या काठ मार गया, तुम्हें कामरेड!
‘स्वार्थ की गंगोत्री है बह रही यहां
और तुम
भीष्म पितामह की तरह
हस्तिनापुर से बंधे हो, कामॅरेड!
क्या तब अपनी वेदवाणी शुरू करोगे,
जब कुरूक्षेत्र में सब साथी,
बंधु-बांधव
खेत रह जायेंगे
और
तब युधिष्ठिर की तरह
हमें ज्ञान दोगे
हे कामरेड!
क्या हमारी नियति सिर्फ
युधिष्ठिर की है?
कर्मयोग क्या नहीं है हमारे लिए
क्या निगेशन फाॅर निगेशन का सूत्रवाक्य,
उस तोते की तरह रटा है तुमने,
हे कामरेड!
मैं नहीं कहता कि
प्रसाद को प्रणाम कर खाना
माक्र्सवाद विरोधी है।
मैंने र्बबरिक की तरह
पूरा महाभारत देखा हैः
तेरे अंदर चलने वाला।
अपनी चेतना को गिरवी नहीं रख सकता हूं
कुछ सवाल छोड़े थे तुमने
माक्र्सवाद विरोध का
बहु-बेटियां पटना-दिल्ली में
और अपने गांव में लूट रही है।
रोज एक गांव की कब्र पर खड़ा हो रहा है
किसी शहर का एक मुहल्ला।
कामरेड! मौन क्यों हो?
मानव हड्डियांे की भरमार से,
भरम होता है
हिंदुस्तान नहीं कब्रिस्तान का।
जहां दफन है,
हमारी संस्कृति, नैतिकता, मर्यादाओं के शव।
और तुम कामॅरेड!
जमाना है पेप्सी कोला का
नेट क्रंाति का
और तुम सुना रहे हो
मुझे दास कैपिटल।
क्या यही है वैज्ञानिक समाजवाद
तो क्या अंतर है
वेद और दास कैपिटल में।
तुम कामरेड
तो एक वटवृक्ष हो,
जो अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहता है।
मगर
वैज्ञानिक माक्र्सवाद
खत्म नहीं हुआ
वह जिंदा है
अपने चाहने वालों के बीच
खेतों में-कारखानों में
विद्रोह
नियति है
पूंजीवादी समाज की
वर्ग के जिंदा रहते
तेरे चाहने से कुछ नहीं होने वाला है
हे छद्मभेषी कामरेड!े
विपत्ति बंगाल
होट्ात
गुरूकुल के प्रति
एक वर्ग के प्रति
लाल के नाम से
नक्सबाडी के नाम से
वि’व मे जानते थे लोग
लाल राज्य
स्थिरि सरकार मजदूर किसानों के हितैषी
श्रम को सम्मान
पहचान बन गयी थी
खून से सीच कर
बनाया लाल राज्य अलग राज्य
कई सदी से चलती रही
बंगाल की सरकार
कर्मठ निर्णयकवान
टूट गयी पूंजी के आगे
झूक गयी जनता के आगे
Sunday, 31 August 2008
राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मानव अधिकार करने के लिए जल
Wednesday, 27 August 2008
सरकारी नीति
अलोका
देहरी पर खड़ी भूख
सरकारी योजनाओं के साथ
उगते है सवाल..........
अधिकार का इमान का
नैतिकता व पहचान का
नानी की कहानी का
समीकरण है, यह खेल का
या विज्ञान के रेल का
दर असल.....
नीतियां योजनाओं होती है,
गुलाब की तरह
रंग होती है, सुगंध होती है
पर होेते है चारों तरफ कांटे
जिनका होता है मुरझाना तय
पड़ जाता है विराम
फिर
आम- आवाम
गांव- गिरांव
जैसा था कल
रह जाता है आज
यही है
सरकारी नीति व योजना का राजनये जमाने के साथ
मजदूर किसान आम जनता
बन जाते है सवाल
जमीन का टुकड़ा
खमोशी
खण्ड़ 1
मैं मोन हूं।
किसी से कभी कुछ नही कहती
कहती भी कैसे?
मै इस लिए भी मौन हूंं
सोचती हूं।
इस धरती का पूरा हिस्सा मेरा है
सभी मेरे ही तो है।
जब बट जाती शब्दो से
कोर्ट के कागजो के उपर
समझती हूं मै
एक है हम सभी
आरी तिरक्षी किनारा
दिवार है बन जाता
हवा के बहाव में दोनो का आंचल लहरा रहा
मै मौन हॅू।
कानून के बटवारे के विरूद्व
बटती जाती
अपने को रौदने वाले के लिए
टुटती हॅू।
जूटती हूं।
उन मौैन धारी अन्य जीवों के लिए
हर वक्त साथ रहता है मेरा
मौन धारण कर पकड़ा रहता
मुझसे जुदा होने की नही वो
कर पाते कल्पना
साया में ठहराव हुआ वर्षो बीस से
टुकडों की बात वो नही कर समता
जिश्म से उत्पन्न
रूकना, ठहरना, सहयोग
और नही कर पाती जमीन के टुकड़े के बीच
रंखा गणित नही समझती
सिर्फ समझती हूं
जयशंकर की उन कविताओं का सार
समझौता और समझौता
हर वक्त होता
हर के साथ
मानव जीवन टिका टुकडे के साथ
जमीन के टुकडे पर बनता नया संसार
जंग में तबाही टुकडे के लिए
जमीन का टुकडा किसके लिए
मैं मौन हूं इसलिए।
मैने नि’चय किया
अलोका
हर रोज तुम्हारे यादों में कुछ किया करू
यादो में सब के सब समाया करू
विफल हो जाउ कोई बात नहीं
सभंल जाउ ऐ बात नही
करना था कि उसे कुछ कर के दिखाउ
वे वजह के तारिफ बाधं आये
करना था कुछ उसके लिए
जिसके दम पर हर रोज कहती थी एक कथा
कम पड़ गया था उस वक्त
खाली हो गयी थी
सभा
हार कैसे मान जाती
कि तुम भी कभी याद आते
हर पंक्ति मेें प्रेम गान गाते
उस वक्त का इन्तजार होता
जिस दिन यादो में बहार आते।
उस दिन गलिया भी गुनगुना रही होती थी
जान पावोगे तु इस वादी का हर शमा
याद के परिंदा बाध रहा
लाल सलाम काॅमरेड़
स्ंार्धष का एक नाम था महेन्द्र सिंह
तूफानों की तरह उठंती थी
विधानसभा में उनकी आवाज
एक मकसद का तोहफा
जनता के लिए हुआ करता था।
हर इंंसान स्त्रीं बच्चे को इंताजर हो गया
एक राज्य स्वतंत्रत रूप से जनता ने बनाया
अपने मकसद को पाते हुए
देखे गरीब गुरबा दुःखी
तमन्ना मन में उजाले के साथ
रौ’ान कर जाने को था।
ेेविकास के मोडॅल पर प्र’न करने
कोई ना बचा
मैने देखी एक आजादी।
Aलोक
झाड़खण्ड राज बन गया।
मन खिल गया।
कैसा होगा।
कल का सूरज
पूरब के आकाश में
झाड़खण्ड के घर-घर
कोना कोना।
दिख रहा आज सूरज।
झाड़खण्ड के आकाश में
गांव घर अंधकार
न बिजली बत्ती।
मिट्टी के तेल का आकाल
स्कुल में मास्टर का अभाव
अस्पताल से डाक्टर लापता
कौन लेगा यह भार
विचार सब जानते है।
लगाना है लगाम
जो नही लगा
वही नेता कर रहा है राज
झाड़खण्ड को बेच
भुला दिया बिरसा क उलगुलान
उठो जागो झाड़खण्डी
विचारों का राह पकडों
जात- पात छोडो
बिरसा की राह पकड़ो
एक नया विचार
पैदा तुम करों
ताज महल की दुनिया।
शाहजहां
अपने प्यार वाली इमारत में
भारत की अर्थतंत्र सिमटेगा।
व्यापार पेट से जुडा होगा।
न सोचा होगा।
कि पत्नी की वियोग का स्थान
देश का भुख मिटाएगा।
लाखो लोगो का रोजगार
पूरे देश की अर्थ व्यवस्था
अब टिका है
शांहजहां के प्यार में
वो दुर से चल कर
प्यार को निहार लेता
साथ ही भारत के भूख को
सहारा वो दे देता।
अब झुकने लगे है प्यार
कि इमारत
थक चुका है
बड़ी आबादी का पेट
भरते भरते।
Tuesday, 26 August 2008
दामिन-इ-कोह
अपना समाज
दामिन-इ-कोह की।
जीवन एक सुत्र में बंधा था ।
भूल जाऐगे- जंगत के र्दद
बन कर रहेगें राजा-रानी
जंगल के साथ।
कंठ से निकलते मधुर गीत।
स्वपन सुखी समृद्ध समाज का
दिनचर्या होती शुरू।
मुर्गी की बांग से।
जंगल में पैर ना रखा हो इंसान
हुआ था तैयार घने जंगल में
घास- पूस,दीवारो का छोटा सा
गाव संथाल का।
रंग -बिरगी जंगली जानकरों
फूलो तितली के चित्र।
मेहनत खुले आसमान के नीचे
कंद मूल इकट्ठ कर।
शाम को घर को लौटते।
जो मिला खाकर भूख शांत करते।
शुरू होता समूह में गाना, बजाना।
फिर आराम।
कहां गया?
दामिन-इ-कोह के अपना राज।
वारिश के बुंद।
Aloka
हर बुंद में है संवाद।
वह कुछ कह रहा।
उसके शब्दा को समझों
वारिश की बुंद।
कुछ अवश्य कह रही
तु प्यास से सुन।
वो बंदे कुछ कह रहा
शायद अहिमयत बता रहा
हर बुंद
एक स्थान मे मिलने की
बात वह कह रहा
शायद वह उपयोग
वारिश के बुंद ।
मेरे कानो को कह रहा।
मुझे एक जगहा
कई कामों मेंं
उपयोग कर
वारिश के बुंद
जब कटोर धरती में
ये बूदं टकरा कर टुट जाते है।
Monday, 25 August 2008
मुलाकात के बाद।
अलोका और फरहद
एक लम्बे इन्तजार के बाद
मिले है हम दोनो
दर्द भरे नगमो के साथ
इसमें ढ़ढते है दो पल खुशियां
खिल उठाता है चमन अपना
एक लम्बे इन्तजार के बाद
सिसकते अरमान को बाटते हम
टुटे फुटे शब्दो के साथ
सुनहरे ख्वाब सजाते है हम
टुटे हुए सितारों के साथ
ये पल अभी अपना है
कल का पल अपना हो ना हो
इस लम्हा को कैद कर लेते
हम दोनो
अपने डायरी और कलमो के साथ
ज्जबात की कहानी।
दो यारों की जुबानी।
फकत कहते है।
दर्द ए हेयात की कहानी
डुबी हुई कस्तियां
ढ़ढती है अपनी ही कहानी।
गम इस दिल में लगाया।
अपने ही दर्द को सहलाया ।
अपने डुबे कस्ती को उठाया।
संसार डिगा न सका।
दोनो यारो की वफा कि निशानी
इस दिल में हैं इतनी जगहा।
जिसमें समा सकता है दो।
यारो कि वफा
जिसमे होगी ।
ज्जबात की कहानी।
दो यारो की जुबानी।
तीसरी दुनिेया की तीसरी दुकान।
इस दुकान में क्या- क्या न बिकता।
मानव को इंडिजिनश पियूपल बना देता।
हिन्दी को अग्रेजी बना डाला।
संधर्ष की दुकान चलाया ।
मनुष्य को रंग के अनुरूप।
मैटर बना कर बेच आया।
किमत किससे ज्यादा मिलेगी।
उस भाषण को किताब बनाया।
बैनर पर संस्कृति परम्परा का
प्रोडक्ट लोंच होने का सकेत दे आया।
मानव को फेक्ट्री की तरह
वो इस्तेमाल कर आया।
ग्रामीण बोली हीरा बना।
पहले दुकान आंदोलन का चला।
धीरे- धीरे बच्चे भी उसमें शमिल होते गये।
शिक्षा का महत्व रूप के अनुरूप बना।
पलायन तो कोडी के भाव बिका।
डायन हत्या का मूल्य निधारित नही
अब कचडा साफ कराने में दो करोड़ कमा चुके
स्वास्थ्य विषय बड़ा पुराना है।
इसका बाजार निराला है।
एक नया प्रोडक्ट और लांच हुआ।
मुद्दा बना जंगल का।
देश के कोने -कोने में खोला बड़ा बाजार।
लाखो लोग ने जमकर कमाया।
अब तक न एक पेड़ बचाया।
नारा बना जंगल कटने से
वारिश पर हुआ असर
और खुला एक नया दुकान।
पानी-पानी-पानी का
एक को राहत अब तक न मिली
पानी के बिन जनता लड़ पड़ी।
मुद्दा बना चुनाव का ।
कौन प्रोडक्ट अच्छा है।
किसमें किमत ज्यादा है।
जिसका संबध फाॅरन से है।
लांच कराने वाले सब जानते है।
बड़ी दुकान बड़ा दाम।
छोटी दुकान छोटा दाम।
मेहनत मजदूर कहता एक समान।
फिर भी करता जनता का सम्मान।
तीसरी दुनिया का तीसरी दुकान।
उस दुकान को मेरा सलाम।
चेयरमैन माओ
अलोका
प्रिय माओ,
जोहार!
एक समय था,
जब सड़कों की दीवारों पर पैबस्त रहता था
चीन का चैयरमैन हमारा चेयरमैन
हसंते थे कुछ लोग
कुछ देते थे गाली भी
मैं नहीं जानता, माओ !
वो ठीक थे या ये
मगर आज कुछ ठीक नहीं है तेरे बगैर
चीन में सब बदल गया,
मगर नहीं बदला, तो मजदूरों की बदली हुई किस्मत
आज झारखंड में तुम्हारे और गांधी के गाने वाले
हर दिन सड़कों पर मिल जायेंगे
मगर उनमें
तुम तो कहीं भी नहीं दिखते
झाड़खण्ड से बिरसा को भी दे’ा निकाला दे दिया है
मगर बिरसा के गीत हर बार बज जाते हैं
बिरसा और तुम्हारे लोग
बहला दिये गये हैं
वो जानते हैं चेग्वेरा व तुम्हारे टी’ार्ट पहने वाले
फ्रेंच कट दाढ़ी वाले
सिगरेट हाथों में लिये
रोज तुम्हें बेच आते हैं वल्र्ड बैंक के हाथों
फिर भी खोज रहे हैं तुम्हें
लोग
तेरी रचनाओं से दूर
उनकी सपनों की दुनिया में
एक चेहरा है
जो तुम्हारी तरह ही लगता है
और
अंधेरे में झलक उठता है हर चेहरा
जिस पर लिखा होता है
हां! चुप रहो,
कुछ नहीं होगा तुमसे
झोला उठा लो अपना
चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन
प्राकृति
अलोका
प्राकृति से लगाव।
इसका अर्थ दुसरा है।
मैं प्राकृति के धुन
और गीत सुनती हूं।
झरने चलते जाते हैं।
छोडते जाते है शब्द ।
तान होती उसमें
गुजरते है जहां से
वातावरण जाता है। बदल-बदल सा
हर मोड पर
सभी के लिए।
धुन और तान एक समान है।
हवा भी साथ मेंतान मिलाती है
मानों पत्थर पर टकरा कर नये
सुर ताल बिखेर रहे हो।
लगता है मांदल पर
किसी ने कम्पन्न
पैदा कर दी हो।
पक्षी भी अपने
स्वर रोक नही पाते।
हर कोई की अपनी वाणी।
पिरोये होते सुर में ।
वृक्ष भी इस तान से
दुर नही रह पाता ।
मानों समूह के साथ
अपना स्वर मिला रहा
झिंगूर(कीडे+) भी धरती के
अन्दर स्वर मिलाते है।
जब पूरी वादी एक साथ
झुमर गीत का तान छेड चुका हो
हर कोई अपनी उपस्थिति दर्ज
वहां करा जाते है
यह भी एक युद्ध जैसा ही है।
वे अपने गीतों के माघ्यम से
एकता का ऐलान कर रहा।
खजूर की चटाई।
अलोका
नानी के गांव में
खजूर क पत्ते
और उसकी चटाई
आज जीवित है
सदियों के बाद सर्दियों में
ओढ़ने बिछाने के लिए
मेहमानों के स्वगत के लिए
सम्मान पूर्व बैठने के लिए
आंधी तूफान में खोजते खजूर की चट्टाई
बरसात की झड़ी में
ढ़कने के लिए है मात्र
खजूर की चटाई।
चटाई हर किसी के पास
खलिहान में बैठने की इच्छा
चटाई मिट्टी के उपर डाल
इतमिनान से बुढ़ी औरतें
जीवन को गाते- सुनाते
खजूर के पेड के पत्ते से अनुभव
शहर वापस आते वक्त
चटाई की सुगन्ध
महसूस करते है हम
खजूर की चट्टाई
दिसंबर की रात
जाड़े के साथ
नानी पास होती
खजूर की चटाई
ढ़क कर हमें सुलाती
कंप कपी के ठंड़
बढ़ता था रातों कों
चूल्हे पर लकड़ी
जला कर ठंड सेलडाई,
साथ में खजूर की चट्टाई
आंधी रात को
गांव के सब लोगों ने
खजूर की पत्ती के साथ
जीवन जीना सीख लिया था।
जब मै बड़ी हो गयी
याद करते है।
अपने नानी घर कि कथा
महसूस करते
उस गांव के मुगी- मुर्गी।
पक्षी और घास के दिन
बेल आम कि महक याद आती है।
याद आती है खजूर की चटाई
मूढ़ी का पाइला।
अलोका
लगती है अच्छी
मूढ़ी वाली
चार पाइला मूढ़ी के बाद
भरी पोलोथिन मूढ़ी में
उपर से डाल देती है
एक मूट्ठी मूढ़ी
हालाकि यह चगनी मंगनी है
कि चार पाइला
मूढ़ी में थोड़ा हिल जाने पर
कुछ मूढि.यां गिर जाती है
ऐसा नही है
पाइला का माप कम हो जाता
फिर भी वो डाल देती है
उस पोलोथिन में मुट्ठी भर मूढ़ी
जैसे विवाह के बाद
बेटी की विदाई के वक्त
मां मुट्ठी भी चावल, हल्दी और दूब
खेाइछा देती है बांध
यह थोडा सा नहीे होता हैं
इसमे
प्यार आत्मीयता
गर्माहट और
‘’ाुभकामनाओं का
अनन्त संसार होता है
मुट्ठी भर प्यार
मुट्ठी भर गर्माहट
बस अब
मुट्ठी भर
अच्छे लोग।
नये हस्ताक्षर।
युग का परिवर्तन हुआ
कार्य में सृजन हुआ
एक लम्हा उसके लिए
सिर्फ नये हस्ताक्षर में
विकट परिस्थिति
सहयोगात्मक भाव
निराला इस दुनिया में
घर के रसोई से
कलम भी बोलने लगे
स्त्री चरित्र पर
नये हस्ताक्षर होने लगे
इस युग का गाथा
बेड रूम के मेज
पर सजने लगे
अपने सृजन को
शब्दों को बदला
नये युग में
विचारों को जोड़ा
स्त्री की व्यथ
स्त्री ने ही लिख डाला।
जीवन की कसौटी में
खड़े.किए
नये हस्ताक्षर
कमसीन बनी श्रमशील।
नया राज्य
पर
जीवन रूका -रूका सा
दिमाग खाली पड़ी
कमसीन बनी श्रमशील
नगे पंाव
चुडा के पोटली
मट मैले कपडे+।
मन में आकंाक्षा।
सब पर भारी भूख
चली ट्रेन से
सूखे आंेठो को
आंसू से भींगाते
कल की चिन्ता
महानगर की गली
काम की तलाश
भटकन और भटकन
अन्ततः वही जूठन
की सफाई
खेतों- वनों की कुमारी रानी, बेटी, माई
कमसीन
बनी रेजा- कुली- मेहरी
दाई बस
श्रम बेचने वाली श्रम’ाील
सन्नाटा अलोका
1सन्नाटा पसरा उस रात ।
थम गयी हो खमोशी
जैसे नरेंद्र मोदी का गुजरात।
दिसंबर की रात,
था घुप अंधेरा
च्ेाहरे पर था कई चेहरा
2लम्बे समय तक सिर्फ
खौफ, खमोशी और सन्नाटा
काली रात भी विलखती रही
सड़कों पर न जाने क्या-क्या सुलगती रही
हां, था
वो हमारा गुजरात
सन्नाटे में जलती रही रात3चीख औरतों की
बच्चे गुम हुए औरतों की
सूरज भी बिलखता रहा
और
मां की लाश पे’ सिसक कर
सो गया माहताब
हां वही था
हमारा गुजरात
दिल्ली में हैं झाड़खण्ड। अलोका
दिल्ली में
ठोकर खा रहे
फुटपाथ पर
झाड़खण्ड का भविष्य
घर छोड.ने पर किया मजबूर ।
गिरतेेे- पड़तेे जी रहे है।
अपनो से दूर
गुम हो रहे है सपने ।
दिल्ली के गलियों में
अपनी ही लोगो से
लूट रही परम्परा; संस्कृति
बस बाजार में।
खो जाती है बड़े नगरो में
बेचती है अपना श्रम
पुछते है आस-पास के लोग
कहते है ......................
दिल्ली में है झाड़खण्ड।
अब बनेंगे बांध आंसू के।
अलोका
कोई कोना देश काबांध बांधने से बचा नही।
नदी का किनाराबांध से अछुता नही।
नाली के पानी तक कोबांधने की योजना चल पड़ी।
सागर के पानी
देशो में बटवारा हो चुकी।
कई नदियां अब बिक चुकीधरती का पानी बचा नहीं
लगते लगाम
आंसू पर अब बंधेगे बांध आंसू के
एक काॅमरेड का bhshan
Wednesday, 28 May 2008
पाश
Monday, 14 January 2008
ग़ालिब
Saturday, 12 January 2008
Thursday, 3 January 2008
सुनिधि चौहान के साथ 'एक मुलाकात'
बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाकात' में हम भारत के जाने-माने लोगों की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं। एक मुलाकात में हमारी मेहमान हैं आज के दौर की बहुत ही सफल पार्श्व गायिका सुनिधि चौहान।* आप तो इतनी कम उम्र की लग रही हैं, मैंने ऐसा सुना है कि आप बहुत छोटी उम्र से गाने गा रही हैं।
मैने चार साल की उम्र से गाना शुरू कर दिया था। लेकिन फिल्मों में 11 साल की उम्र में गाना शुरू किया।* आपको कब पता लगा कि आप गा सकती है?
मैं तो डांस में अधिक रुचि लेती थी। लेकिन मेरे मम्मी-पापा और उनके दोस्तों को लगा कि मैं अपनी गायकी में निखार लाकर अच्छी गायिका बन सकती हूँ। मेरी मम्मी-पापा ने बहुत मेहनत की।* आपने सबसे पहले कहाँ गाया?
सबसे पहले मैंने एक जागरण में गाया था। माता के सम्मान में दो गाने गाए थे। वहीं से लोगों को लगने लगा कि मुझे दूसरी जगहों पर भी गाना चाहिए। इस तरह मेरी माँग बढ़ती गई। जब कोई बड़े समारोह होते और उसमें बड़े स्टार आते तो मैं दिल्ली की तरफ से गाने वाले गायकों में होती। इन लोगों में मेरी ही उम्र सबसे कम होती थी। इस तरह मेरा काम के रोमांचक शुरुआत हुई।* फिल्मों में गाना कब शुरू हुआ?
मैं मुंबई गई थी। वहाँ तबस्सुम जी ने मुझे कल्याणजी भाई से मिलवाया। मैंने उनकी अकादमी में डेढ़-दो साल संगीत सीखा और उस दौरान कई शोज किए। फिर कल्याणजी भाई ने मुझे फिल्म फेयर पुरस्कार समारोह में गाने का मौका दिया, जहाँ आदेश श्रीवास्तवजी की नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे फिल्मों में काम दिया।* मैंने ऐसा भी सुना है कि आप किसी टीवी शो में भी जीती थीं। ये फिल्म में गाने से पहले था कि बाद में?
पहले, इसके बाद दो-तीन साल मैंने कुछ अधिक नहीं किया। क्योंकि मेरी आवाज न बड़े जैसी थी न छोटे बच्चे जैसी। बस कुछ आलाप किए थे। तभी पता लगा कि डीडी वन टीवी चैनल पर एक टैलेंट हंट शुरू हो रहा है जिसके फाइनल में लताजी का आना होगा। मैं लता जी को आज भी पूजती हूँ। मैं उनसे मिलकर, उन्हें छूकर महसूस करना चाहती थी कि कैसा लगता है। मैंने उस कार्यक्रम में लताजी की वजह से उसमें हिस्सा लिया और प्रतियोगिता जीत भी ली। लताजी के हाथों पुरस्कार लिया।* तो आपने उन्हें छुआ?
मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं आपको छू सकती हूँ और फिर उन्हें छुआ। मेरी आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने मेरे आँसू पोछें और कहा कि जब कभी भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना।* निधि से सुनिधि कैसे हुआ आपका नाम?
कल्याण जी भाई के अकादमी से जो भी लोग निकले सबका नाम ‘स’ से शुरू होता था जैसे साधना सरगम, सोनाली वाजपेयी, सपना मुखर्जी। मेरा नाम भी निधि से सुनिधि चौहान हो गया। संगीत भी ‘स’ से शुरू होता है और सरगम भी ‘स’ से शुरू होती है।* आपकी पसंद का एक गाना बताएँ।नई नहीं ये बातें हैं पुरानी कैसी पहली है जिंदगानी....
जा
सुनिधि चौहान के साथ 'एक मुलाकात'
बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाकात' में हम भारत के जाने-माने लोगों की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं। एक मुलाकात में हमारी मेहमान हैं आज के दौर की बहुत ही सफल पार्श्व गायिका सुनिधि चौहान।* आप तो इतनी कम उम्र की लग रही हैं, मैंने ऐसा सुना है कि आप बहुत छोटी उम्र से गाने गा रही हैं।
मैने चार साल की उम्र से गाना शुरू कर दिया था। लेकिन फिल्मों में 11 साल की उम्र में गाना शुरू किया।* आपको कब पता लगा कि आप गा सकती है?
मैं तो डांस में अधिक रुचि लेती थी। लेकिन मेरे मम्मी-पापा और उनके दोस्तों को लगा कि मैं अपनी गायकी में निखार लाकर अच्छी गायिका बन सकती हूँ। मेरी मम्मी-पापा ने बहुत मेहनत की।* आपने सबसे पहले कहाँ गाया?
सबसे पहले मैंने एक जागरण में गाया था। माता के सम्मान में दो गाने गाए थे। वहीं से लोगों को लगने लगा कि मुझे दूसरी जगहों पर भी गाना चाहिए। इस तरह मेरी माँग बढ़ती गई। जब कोई बड़े समारोह होते और उसमें बड़े स्टार आते तो मैं दिल्ली की तरफ से गाने वाले गायकों में होती। इन लोगों में मेरी ही उम्र सबसे कम होती थी। इस तरह मेरा काम के रोमांचक शुरुआत हुई।* फिल्मों में गाना कब शुरू हुआ?
मैं मुंबई गई थी। वहाँ तबस्सुम जी ने मुझे कल्याणजी भाई से मिलवाया। मैंने उनकी अकादमी में डेढ़-दो साल संगीत सीखा और उस दौरान कई शोज किए। फिर कल्याणजी भाई ने मुझे फिल्म फेयर पुरस्कार समारोह में गाने का मौका दिया, जहाँ आदेश श्रीवास्तवजी की नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे फिल्मों में काम दिया।* मैंने ऐसा भी सुना है कि आप किसी टीवी शो में भी जीती थीं। ये फिल्म में गाने से पहले था कि बाद में?
पहले, इसके बाद दो-तीन साल मैंने कुछ अधिक नहीं किया। क्योंकि मेरी आवाज न बड़े जैसी थी न छोटे बच्चे जैसी। बस कुछ आलाप किए थे। तभी पता लगा कि डीडी वन टीवी चैनल पर एक टैलेंट हंट शुरू हो रहा है जिसके फाइनल में लताजी का आना होगा। मैं लता जी को आज भी पूजती हूँ। मैं उनसे मिलकर, उन्हें छूकर महसूस करना चाहती थी कि कैसा लगता है। मैंने उस कार्यक्रम में लताजी की वजह से उसमें हिस्सा लिया और प्रतियोगिता जीत भी ली। लताजी के हाथों पुरस्कार लिया।* तो आपने उन्हें छुआ?
मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं आपको छू सकती हूँ और फिर उन्हें छुआ। मेरी आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने मेरे आँसू पोछें और कहा कि जब कभी भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना।* निधि से सुनिधि कैसे हुआ आपका नाम?
कल्याण जी भाई के अकादमी से जो भी लोग निकले सबका नाम ‘स’ से शुरू होता था जैसे साधना सरगम, सोनाली वाजपेयी, सपना मुखर्जी। मेरा नाम भी निधि से सुनिधि चौहान हो गया। संगीत भी ‘स’ से शुरू होता है और सरगम भी ‘स’ से शुरू होती है।* आपकी पसंद का एक गाना बताएँ।नई नहीं ये बातें हैं पुरानी कैसी पहली है जिंदगानी....Source : www.bbchindi.com
* आपका पहला हिट गाना राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘मस्त’ से था।
हाँ, रामगोपाल वर्मा की फिल्म थी, संदीप चौटा जी का संगीत था। उनसे मुझे सोनू निगम ने मिलवाया था। उससे पहले हीं कुछ भी नहीं थी। इस फिल्म से मेरी पहचान बनी।* आदेश श्रीवास्तव ने कौन सा गाना गवाया था?
‘शस्त्र’ फिल्म का गाना था लड़की दीवानी, देखो लड़का दीवाना...लेकिन गाना चल नहीं पाया।
* अपने काम में मेहनत के अलावा और क्या जरूरी है?फोकस, आपको पता होना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं।* आप कहाँ फोकस कर रही हैं?
गायकी पर, मैं बीच में भागती रहती हूँ, लेकिन मेरा फोकस गायकी में बना रहता है। यही मेरी जिंदगी और प्यार है। मेरा वजूद ही संगीत है। अगर मैं गायिका नहीं होती तो भी गायिका होती। बस छोटी गायिका होती।
* कोई ऐसा गाना जो किसी और ने गाया हो और आप गाना चाहती हूँ?
फिल्म ‘ओंकारा’ का गाना है जो रेखा भारद्वाज ने गाया था। लाकड़ जलकर कोयला होय जाए जिया जले तो कुछ न होय न कोयला न राख..जिया न जलइयो रे...* सोनू निगम के अलावा पुरुष गायकों में से आपको सबसे अधिक पसंद कौन है?
केके बहुत पसंद है। शान के कुछ गाने हैं। रूप कुमार राठौर भी अच्छा गाते हैं। उनका अनवर का मौला...गाना बहुत अच्छा था। सुखविंदर को मैं कैसे भूल सकती हूँ।* जिंदगी के रोमांचक पलन्यूयॉर्क के एक शो में अमिताभजी के पहले मेरा कार्यक्रम था। मैंने गाना गाया तो लोगों ने खड़े होकर मुझे सम्मान दिया था। उसके बाद अमिताभजी आए और मुझे गोदी में उठा लिया और कहा अब हम क्या करें भाई, इस लड़की ने तो हम सबकी छुट्टी कर दी और दूसरी बार जब लताजी के हाथों मुझे सम्मान मिला।* आपको कोई ऐसा प्रशंसक मिला है जो आपको और आपकी गायकी को पागलपन की हद तक पसंद करता हो?
एक आदमी है। उसे वो सबकुछ मालूम है मेरे बारे में जो मुझे भी नहीं मालूम। उसे मेरे हर शो के बारे में पता है। उसे ये भी पता है कि मैंने किसी शो में कौन से कपड़े पहने थे और कौन सी लिपिस्टिक लगा रखी थी। ऐसे प्रशंसक होना बड़ी बात है।